तकिये के नीचे...
ग़म इतना गहरा था शायद उम्र भर उसे कुरेदते ही रहे हर बात पे गहरी सांस ले कर तेरी तस्वीर को देखते ही रहे फलक तक साथ मुश्किल था तो कुछ क़दम में दम भर लिया मैंने किराये के मकान में कुछ दिन काफी होते हैं मैं उम्र भर चली थी उसमें रहने क़रीब नहीं थे कभी इतना कि तुम्हे हर लफ्ज़ की गहरायी समझाती औने-पौने इशारों में कहाँ दिलों की बातें बाताई जाती अब बीत चुके हैं बरसों यादें धुंधली और तारीखों का होश नहीं बहुत किस्से जो अधूरे रह गए उनका भी कोई अफ़सोस नहीं बस एक ग़म नहीं जाता काश तुम्हें रोकती और सब कुछ कह पाती तो ना सुलगती उम्र भर ना अपने अरमानों को तड़पाती तकिये के नीचे दबा के रखे है तुम्हारे ख़याल एक तस्वीर, बेपनाह इश्क और बहुत सारे साल Listen to the rendition of this #poem - here