कहने की हिम्मत कहाँ से लाऊँ
कुछ तो होगा तेरे मेरे बीच
यूँही बिना मिले दिलों के तार नहीं छिड़ते
पतझड़ में भी
वक़्त से पहले पत्ते शाखों से नहीं बिछड़ते
तुम कहोगे अकेलापन वजह है
मैं कहूँगी शायद कुछ और
बस मान लो एक बात कि तुम सुकून से लगते हो
बाकी सब लगता है मुझे शोर
तुम्हें उम्र भर इश्क़ नहीं मिला
तुम्हें यह गिला है
फ़र्ज़ निभाते-निभाते ज़िंदगी यूँही कट गई
हम दोनों का यही सिलसिला हैं
मुझे रत्ती भर इश्क़ तो मिला
पर उससे बड़ा धोखा
सारी ज़िंदगी इसी उम्मीद में रही
मेरी क़िस्मत में भी कोई तुमसा होगा
बस तकदीरों का खेल कह लो
यह ज़िंदगी मुझे रास नहीं आई
तुम कही हो तो सही
पर तेरे-मेरे बीच मीलों लंबी जुदाई
शायद कभी फ़र्क़ पड़ना बंद हो जाएगा
तब तक के लिये गुज़ार लेते है
तुम व्हाट्सएप पे मेसेज भेजते रहना
यूँही तुम्हारी बातों पे हम खुश हो लेते हैं
वैसे इससे ज़्यादा की उम्मीद करती हूँ
पर कह नहीं पाऊँगी
तुम्हारे साथ वक़्त गुज़ारना चाहती हूँ
पर हिम्मत कहाँ से लाऊँगी
*I am striving to make amends for the fact that I failed to compose even a single couplet throughout the month of May.
Comments
Post a Comment
Bricks, brickbats, applause - say it in comments!